हमदर्द रही यूँ तो ये ज़िन्दगी अपनी, मगर दर्द से वास्ता ना कभी टूटा अपना.

मिल ना पायें येही आरज़ू ज़िन्दगी की, हम मुसाफिर भटकते रास्तों के जो ठहरे.

लफ़्ज़ों की आना कानी चलती रहती है, शिकवें जो हज़ारों उन्के लबों पर रहते हैं.

अपनी रूठी शामों का जिक्र खुद से करते हैं, किसी को नहीं खबर हम कैसे ज़िन्दगी बसर करते हैं.

खुआबों में जब वो कभी आया, अश्कों से ग़म ऊबर आया, डूब गया दर्द से दिल अपना, जब क़भी इसमें तेरा जिक्र आया.

अपना कोई ना मिल पाया ये बात तो ग़लत होगी, मगर जिसे अपना समझा वोही बेवफ़ा निकला.

साँसों की कैद से रिहाई नहीं चाहते हम, लम्हें दफ़न है सीने में हमसफ़र बनकर, यादों के साये में गुज़रे यूँ ये ज़िन्दगी, बस जेही आख़री अब हमारी तल्ब होगी.

जुदा होने की दिल देता मंजूरी नहीं, फ़ासले कितने भी हों जे जरूरी तो नहीं, सौ गिले शिकवें हैं दोनों के दरम्याँ, मगर हर बात तुम्हारी वाज़िब हो ये जरूरी तो नहीं,

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