अपना दर्द अपने तक ही रखना तो मुनासिब है, वरना तो ये दुनिया ज़ख़्मों को कुरेदने में लगी है।
यूँ तो ज़िन्दगी से शिकायत रही है, ऐसी नहीं गुजरी जैसी चाहत रही है, सूखे पत्तों सा वजूद रहा है, और ग़मो की जैसे बारिश रही है|
एक घर इस मोहल्ले में वीरां पढ़ा है, तुम आके देख़ना सब सामान बिखरा पढ़ा है, यूँ तो बसता है आज भी यहाँ पर कोई, लेकिन फिर भी ये शमशान बना पढ़ा है.
हर बात खामोश रहने लगी है, ज़िन्दगी अब बहुत कुछ कहने लगी है, कोई जख़्म जो पल रहा है भीतर ही भीतर, ऐसे ही तो नहीं ऑंखें नम रहने लगी हैं.
बरोसा सिर्फ सबद बनकर रह जाता है, जब कोई अपना दगा कर जाता है, कितनी भी कदर हो क्या फ़र्क़ पड़ता है, आख़िर में वो जब अलविदा कह जाता है।
उड़ जायेगा तू भी एक दिन परिंदा बन के मालूम ना था, वर्ना हम भी आशियाँ बनाने की ज़ुर्रत ना करते, एक अरसा उम्र इंतज़ार में गुज़ार दी, गर पता बेवफाई का होता, तो कब्के बेवफ़ा हो जाते यूँ वफ़ा की बात ना करते.
जो मिला नहीं उसकी कदर करना आ गया, लेकिन उसके बिना रहना भी आ गया।
हजब दूसरा मिला तो पहले की कोई कदर नहीं, वाह-रे-इश्क़, तेरी मोहब्बत बनावटी निकली.
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